वो लफ्ज़
जो तुम्हारी आँखों ने कहे थे मुझसे
आज भी सहेज रखे है मैंने
वो लफ्ज़
न दिखते है न मिटते है
एक फाँस की तरह सीने में चुभते है
तब जब
आँखों की कोरों से बहते अश्क
पोंछती है उंगलियाँ
एक दर्द अजीब सा
उँगलियों की पोरों में समां जाता है
वो लफ्ज़
जो कहे तुम्हारी आँखों ने
और मैंने उन लफ़्ज़ों से
बुन लिए सपने
और मेरे सपने
आज भी उघड़े बदन
तेरी बाट जोहते है
सुबह आरती में शीश नवाते है
और साँझ को संध्या करते है .
वो लफ्ज़
जिनमे तेरे कजरे की महक है
अँधेरे में दिये की मानिंद
रौशन है मेरी ज़िन्दगी में
मुझे एतबार है
तेरी आँखों की ज़ुबान पर
उस चाहत पर
जहाँ शरीर पीछे छूट जाते है
मन मिल जाते है
तुम आओगे ..तुम आओगे ...तुम आओगे ...
सुबोध - ११ अक्टूबर,२०१४
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