मुझे याद नहीं
कितनी बार गिरा हूँ मैं
कितने ज़ख्म बने मेरे जिस्म पर
कितनी बार दिल चीरती हँसी
हँसी गई मुझ पर
मगर रूका नहीं मैं
गिर-गिर कर उठा मैं
झाड़ी अपनी धूल
मुस्कुराया हल्का सा
कसी अपनी मुट्ठियाँ
और डाल कर आँखों में आँखे
कहा ज़िन्दगी से -
मैंने हार से बचने का
एक तरीका और सीखा है ,
सफलता इंतज़ार कर रही है मेरा
आ, एक कोशिश और करें !
- सुबोध १३ नवंबर, २०१४
कितनी बार गिरा हूँ मैं
कितने ज़ख्म बने मेरे जिस्म पर
कितनी बार दिल चीरती हँसी
हँसी गई मुझ पर
मगर रूका नहीं मैं
गिर-गिर कर उठा मैं
झाड़ी अपनी धूल
मुस्कुराया हल्का सा
कसी अपनी मुट्ठियाँ
और डाल कर आँखों में आँखे
कहा ज़िन्दगी से -
मैंने हार से बचने का
एक तरीका और सीखा है ,
सफलता इंतज़ार कर रही है मेरा
आ, एक कोशिश और करें !
- सुबोध १३ नवंबर, २०१४
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