Thursday, April 30, 2015

हाँ मैं मेट्रो में रहता हूँ
मैं हँसता हूँ
क्या फर्क है शहर की खड्डों वाली
और गाँव की टूटी सड़क में ?
क्या शहर के लिए अलग सप्लाई है अनाज की
गाँव की अलग ?
कहाँ है फर्क
पीने के पानी में
दूध शहर में भी नकली और गाँव में भी
बिजली विभाग की मेहरबानियाँ शहर और गाँव में फर्क नहीं करती
प्रदुषण ?
सूरज की रौशनी ?
बेरोज़गारी ?
गन्दगी ?
शोरगुल ,टी.व्ही ?
फैशन ?
सपने ?
बाइक, गाड़ी ?
दहेज़ ?
औरत ?
या मर्द की मानसिकता ?
हीरे क्या शहर में ही पैदा होते है ?
हुनरमंद लोग क्या शहर में ही होते है ?
भ्रूण हत्या क्या गांवों में ही होती है ?
तकलीफ गांव में
और
आराम क्या सिर्फ शहर में होता है ?
ढेरों सवाल
और जवाब
सोचता हूँ
और सोचता रहता हूँ
क्योंकि
मेरे जवाब और आपके जवाब में फर्क है
मेरे जवाब मेरी मानसिकता है
और आपके जवाब आपकी
मेरे जवाब मेरे अनुभूत सच है
और आपके जवाब आपके सच
क्या आपको नहीं लगता
फर्क गांव और शहर से ज्यादा
पैसे का है
जड़ों का है
किस्से- कहानियों का है
अधूरेपन और पूरेपन का है !!!

सुबोध- अप्रैल २७,२०१५

Friday, April 17, 2015

39 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


क्या करोगे जीत का सेहरा पहन कर ?
अपनों को दुखी कर उनके खिलाफ लड़ी हुई जंग में जीत भी गए तो क्या ,ये जंग किसी कौरव की नहीं,किसी पांडव की नहीं उनकी है जो कल भी तुम्हारे थे,आज भी तुम्हारे है और तुम चाहे जीतो या हारो तुम्हारे ही रहेंगे .
तुम खेल रहे हो अपने बच्चे के साथ और उसे खेल में हरा देते हो, खुश होते हो जबकि तुम्हारा उद्देश्य बच्चे को कंपनी देना था , उसके चेहरे पर मुस्कान की ताबीर लिखना था ! और तुमने अपनी चंद लम्हों की ख़ुशी के लिए उसे रोआंसा कर दिया जबकि तुम उसमे एक नूर तलाश रहे थे ,एक चपलता ,एक कोमलता ,एक खिलन्दड़ापन ,एक सहजता,एक सजगता और अपनापन तलाश रहे थे . वाह , क्या नशा है जीत का !!
विवाद होता है माँ-बाप से पत्नी से बच्चो से और तुम अपनी बात सही साबित करकर जीत जाते हो बिना पूरी तरह उनका पक्ष जाने और खुद खुश होते हो बिना उनकी खुशी की परवाह किये , जिस तरह तुमने अपनी जीत पक्की करकर अपने बच्चे की ख़ुशी की परवाह नहीं की जबकि तुम्हारा उद्देश्य बच्चे को खुश करना भर था ! उसे जीत का आनंद देना था ,बड़प्पन देना था !
तुम्हे आदत पड़ गई है जीत की, हार तुम्हे रास नहीं आती बौखला जाते हो हार का सामना होने से ,लेकिन क्या हमेशा तात्कालिक तौर पर निश्चित की गई जीत ही वास्तविक जीत होती है ?
जीत महवपूर्ण है लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि तुम जानो किसके खिलाफ जीत रहे हो !
अपनों के खिलाफ जीत निश्चित करने से पहले सोचना वाकई में तुम जीत रहे हो या तुम्हारा सामर्थ्य जीत रहा है !
जिस दिन तुम्हारा सामर्थ्य चूक जायेगा उस दिन विगत में हासिल की गई जीत क्या वर्तमान की जीत या भविष्य की - सर्वकालिक जीत बनी रहेगी ?
अगर तुम्हारी एक हार से उनकी खुशियाँ बरक़रार रहती है ,चेहरे पर चाँदनी निखरती रहती है ,पैर ठुमकते रहते है, हाथों की लयबद्धता बाधित नहीं होती तो समझना तुम्हारी हार नहीं बल्कि जीत हुई है , ज़िन्दगी का उद्देश्य तुम्हारी व्यक्तिगत जीत नहीं ,अपनों की जीत में निहित है .तुम अकेले जीत भी गए और उस जीत के एवज में तुम अपनों को हार गए तो उस जीत का क्या स्वाद वही रहेगा ?
तुम्हारी ज़िन्दगी का गहरा उद्देश्य क्या है या तुम्हारे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्या है ?तुम्हारी जीत या अपनों को ख़ुशी देना या हर हार से कुछ सीख हासिल करना ?
अपनी चंद लम्हों (ये उथला उद्देश्य हो सकता है ) की ख़ुशी के लिए अपने मुख्य उद्देश्य से भटक जाना उचित नहीं !!!
सुबोध- अप्रैल १०, २०१५

38 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


मुझे याद है बचपन में मैं खुद के बनाये हुए मिटटी के घरोंदे मन भर जाने पर या खेल ख़त्म होने पर बड़ी सहजता और बिना किसी तकलीफ या दर्द के एहसास के तोड़ दिया करता था , आज उतनी सहजता के कुछ भी नहीं कर पाता, यहाँ तक कि खाना खाते वक्त भी ध्यान रखता हूँ मुंह ज्यादा नहीं खोलना है ,कौर छोटे रखने है ,धीरे-धीरे चबा-चबा कर खाना है जबकि बचपन में बड़ा सा कौर मुंह में ठूंस कर भाग जाया करता था दोस्तों के साथ खेलने को ,बिना किसी बड़े की टोका-टाकी की परवाह किये.
बड़े होने की कीमत हमने सहजता खोकर चुकाई है !!
चेहरे पर ओढ़ी हुई झूठी मुस्कान कभी-कभी बड़ी चुभती है -बचपन में जब किसी से नाराज़ होते थे खुलेआम उससे कुट्टी करते थे लेकिन आज ?
आज तो खुल कर रो भी नहीं पाते !!
और न ही खिलखिलाकर हंस पाते है !!
काश वो बचपन की मासूमियत ,वो सहजता ,वो खिलन्दड़ापन , वो मस्तियाँ, वो बेफिक्री , वो बेशर्मी ,वो निश्छलता , वो अपनापन और वो बेगानापन (जो भी था खुलेआम था ) वापिस जी पाते ,वापिस हासिल कर पाते !!
मैं आज मेरी कॉलोनी के बच्चे देखता हूँ और अपने बचपन से उनके बचपन की तुलना करता हूँ तो एहसास होता है माताएं बच्चे नहीं जनती वे बड़े ही जनती है -तमीज और तहजीब के पुतले .
न जाने इनकी सहजता कहाँ खो गई है ?
माँ-बाप द्वारा लादा गया करियर का बोझ उन्हें पैदा होने के साथ ही बड़ा बना देता है . टी.व्ही . ,वीडियो गेम्स,लैपटॉप और स्मार्टफोन से लदा हुआ इनका बचपन क्या हमारे बचपन से अलहदा नहीं ?
बचपन नाम का एहसास क्या इस पीढ़ी में भी वैसा ही है जैसा हममे हुआ करता था !!
या शायद उनका बचपन भी डिजिटल हो गया है ?
सुबोध- अप्रैल ९,२०१५

सफलता -एक उम्मीद


जिस ऊंचाई की बात तुम करते हो
डर लगता है
उस ऊंचाई के बारे में सोच कर भी
लेकिन जब सोचता हूँ , मथता हूँ खुद को
तो पाता हूँ
सौ मील का फ़ासला भी
कदम-कदम चल कर तय होता है ,
आज इतना बड़ा मैं
एक-एक दिन गुजार कर हुआ हूँ
तो हासिल कर लूंगा
वो ऊंचाई भी
जिसकी बात तुम करते हो
रफ्ता-रफ्ता ...

सुबोध- अप्रैल ७, २०१५

37 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


ज़िन्दगी में असफल वही लोग है जो गलतियाँ नहीं करते क्योंकि गलती होने के डर से वे कभी भी अपने पूर्ण प्रयास नहीं करते ,ऐसे लोग अपनी स्कूली शिक्षा में अच्छे होते है क्योंकि स्कूली शिक्षा में गलतियों पर दण्डित किया जाता है ,गलतियों से बचा जाता है .
ऐसे लोग जब अपने दम पर ज़िन्दगी जीना शुरू करते है तो उन्हें एहसास होता है कि ज़िन्दगी जीने के लिए - एक ऊंचाई हासिल करने के लिए सड़क की शिक्षा महत्त्वपूर्ण है , स्कूल की शिक्षा ज़िन्दगी जीने में सहायक हो सकती है लेकिन ऊंचाई तक पहुंचने के लिए वो शिक्षा काम आती है जो सड़क से हासिल होती है.
सड़क की शिक्षा आपको गलतियाँ करने ,उन गलतियों से सबक सीखने, पर्याप्त सुधार करने और फिर नए सिरे से प्रयास करने और सफलता हासिल करने से मिलती है वो शिक्षा आपको गलती होने के डर से आज़ाद करती है जबकि स्कूल की शिक्षा आपको गलतियों पर दण्डित करती है .
सोचिये अगर स्कूल में साईकल चलाना सिखाया जाता तो क्या होता ?
जो भी गिर जाता उसे दण्डित किया जाता और दंड के भय से अंततः वो साईकिल छूने से भी डरता जबकि सड़क की शिक्षा में साईकिल चलाना कितना आसान है !
सुबोध-अप्रैल ७ ,२०१५

Sunday, April 12, 2015

36 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


रोटी की कीमत एक भूखा इंसान ही समझ सकता है , नौकरी की कीमत उससे पूछे जिसकी अभी-अभी नौकरी छूटी हो .पैसे की कीमत उससे पूछे जिसने अपना सब कुछ गवाँ दिया हो !!
असफलता , टूटन , हताशा ज़िन्दगी का मकसद नहीं है लेकिन ये भावनाएं हमसे उसी तरह चिपकी हुई है जिस तरह जिस्म से चमड़ी.
इंसान की ज़िन्दगी उस खेल की तरह है जिसमे एक पल हम ऊपर होते है और दूसरे पल नीचे , मुसीबत ये है कि हम ज़िन्दगी के उन पलों में जीते है जब हम नीचे होते है हम ऊपर होकर भी नीचे होने के खौफ में जीते है .
जो इंसान भूखा रह चूका है- भूख की पीड़ा , दर्द , ऐंठन, उबकाई, जकड़न जैसे दौर से गुजर चूका है वो इंसान सामने भरपूर खाना होने के बाद भी उस भूख के एहसास को जीता रहता है और छप्पन भोग को भी एक दंड समझता है और उस दंड से बचने के लिए या तो वो संग्रह करता है या उसे बर्बाद करता है ;यहाँ संग्रह करने का अर्थ चीज़ होने के बाद भी उसका भरपूर उपयोग न करने से है और बर्बाद करने से अर्थ फ़िज़ूलखर्ची से है .
भूख सिर्फ खाने की ही नहीं होती , मान -सम्मान की होती है ,पहुँच की होती है, सुविधाओं की होती है , पैसे की होती है और भी ढेरों चीज़ों की होती है और मानवीय प्रकृति के अनुसार हम हर भूख के साथ यही करते है या तो उसे संग्रह करके सजा कर रखते है या उसे दोनों हाथों से लूटा देते है .
इसे थोड़ा पैसे के सन्दर्भ में सोचिये, समझिए और यकीन मानिये आपके सन्दर्भ का विस्तार होने लगेगा , अपनी उन गलतियों को याद कीजिये जो पैसे को लेकर आपने की है जहाँ इसे खुला छोड़ना चाहिए था वहां किस बुरी तरह जकड कर रखा था और जहाँ इसे सम्भालना चाहिए था वहां दोनों हाथों से लूटा दिया था .
जिन गलतियों को किया है उन गलतियों को अगर नहीं किया जाता तो क्या होता ?
जिन पलों में हम ऊपर थे उन पलों को हम नीचे के खौफ में क्यों गुजारते रहे है- क्यों उन पलों को, उन पलों की सोच को साकार होने दिया ?
मुझ से किसी जवाब की उम्मीद मत कीजिये , क्योंकि मेरा जवाब मेरे लिए है और आपका जवाब आपके लिए ,सवाल सबके लिए एक हो सकते है लेकिन जवाब हमेशा निजी होते है !!
सुबोध-मार्च २६, २०१५

35 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


कुछ भी करते हो तुम तो ये न समझना कि उसके जिम्मेदार तुम ही हो और अच्छा या बुरा जो भी असर पड़ेगा वो तुम पर ही पड़ेगा. तुम कोई भी गलत काम करते हो तो क्या सिर्फ तुम अकेले ही उसका फल पाते हो ? और कोई अच्छा काम करने पर ?
सोचो तुम शराब पीकर घर आये हो बेसुध हो नशे में कुछ उल-जुलूल बक रहे हो ,परेशान कौन हो रहा है -तुम या तुम्हारा परिवार ?
तुम तो अपनी मस्ती में हो ,ये समझ कर कि मैं अपने गम गलत कर रहा हूँ पी लिए हो , तुम्हारा गम गलत हुआ या नहीं लेकिन तुमने अपना गम उनको दे दिया जिन्हे तुम बेहद प्यार करते हो और अपने होश में तुम उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो !
तुम सिगरेट पी रहे हो, धुआं वातावरण में छोड़ रहे हो अपना कलेजा फूँक रहे हो और बीमार पूरे वातावरण को कर रहे हो जिसमे परायों के साथ-साथ तुम्हारे अपने भी सांस लेते है , तुम्हारे शौक की कीमत तुम्हारे मासूम बच्चे चूका रहे है, तुम्हारी बीवी चूका रही है, तुम्हारे माँ-बाप , बहन भाई चूका रहे है क्योंकि तुम्हारा उगला हुआ गन्दा धुआं उनके फेफड़ो में समां रहा है !!
जिस तरह तुम्हारी खुशियां तुम्हारी अपनी नहीं है उसी तरह तुम्हारे गम ,तुम्हारे दर्द भी तुम्हारे अपने नहीं है तुम्हारा फ्रस्ट्रेशन सिर्फ तुम्हारा अपना नहीं है .हमेशा इस बात का ख्याल रखना हो सकता है दुनियाँ के लिए तुम एक व्यक्ति हो, हो सकता है खुद के लिए भी तुम एक व्यक्ति हो लेकिन तुम्हारे परिवार के लिए तुम पूरी दुनियां हो , तुम्हारा होना -सही सलामत होना उनके लिए उनकी खुशियों की चाबी है
सुबोध -फरवरी १२ , २०१५ 

34 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


तुम्हे पता नहीं है क्या होगा जब तुम कुछ करने की कोशिश करोगे हो सकता है तुम असफल हो जाओ या हो सकता है सफलता तुम्हारे कदम चूमे लेकिन अगर तुम कुछ भी कोशिश नहीं करोगे तो ये निश्चित है तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं होगा न सफलता और न ही असफलता तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे या तुम खुद ही पिछड़ जाओगे ज़माने की तेज चाल के मुकाबले लेकिन सोचना अपने खाली समय में कि क्या उपरवाले ने तुम्हे आगे बढ़ने के लिए भेजा है या ठहरकर सड़ने के लिए - ठहरा हुआ हर कुछ सड़ जाता है चाहे वो पानी हो या विचार हो या इंसान हो !!!!
सो ठहरो मत, रुको मत , मत बैठो शांत , करते रहो कुछ न कुछ सार्थक , चलते रहो, आगे बढते रहो और हर पल कुछ नया पाने का प्रयास करते रहो क्योंकि कुछ करना ही, कुछ पाना ही तुम्हे वहां पहुंचाएगा जहाँ तुम्हे होना चाहिए , अपने उस होने की तलाश कभी बंद मत करना , जिस दिन तुम ये तलाश छोड़ दोगे समझना उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो गई है , ठहरना एक शून्यता है और शून्यता मृत्यु तुल्य है .या यूँ समझिए कोशिश ही जीवन है , .........
सुबोध- फरवरी १०, २०१५

Friday, April 10, 2015

33 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


कुछ सम्बन्ध ऐसे भी होते है जिन्हे हम दिल और दिमाग से लगाये बैठे होते है जिन पर हमे गुमान होता है ,गौरव होता है उन संबंधों की कलई तब खुलती है जब आप तकलीफ में होते है. हम उस बेवक़ूफ़ बंदरिया से कुछ भी अलग नहीं होते जिसका छाती से चिपका हुआ बच्चा किसी सक्रमण से ग्रसित होकर मरा हुआ उसके सीने से चिपका रहता है और वो अपने सीने से उसे चिपकाये रहती है शायद उसे पता ही नहीं चलता कि ये बच्चा अब ज़िंदा नहीं है या उसे ये वहम रहता है कि ये वापिस ज़िंदा हो जायेगा या वो उस बच्चे के प्यार में इतनी पागल होती है या.....
इन पंक्त्तियों को लिखते वक्त हमारे दिल और दिमाग में दर्द की लहरें हैं या जैसे किसी ने बुरी तरह आँतड़िया निचोड़ दी है -एक दर्द और सूनेपन का एहसास !! इन पंक्त्तियों का अर्थ वहीं समझ सकता है जिसने अपने सम्बन्धो की टूटन को झेला है , कब कोई इतना दूर चला गया , कब इतने विरोध पैदा हो गए , कब स्वार्थ के पहाड़ इतने विशाल हो गए कि सम्बद्ध बौने हो गए इसका एहसास ही नहीं हुआ !!!!
आज हमारे दर्द की सर्द ठिठुरन में हम उन संबंधों में गर्माहट तलाश रहे हैं , जो सम्बन्ध रहे नहीं - उनके लिए ये ऐसा बोझ है जिसे ढोना समझदारी नहीं है , वो इतने समझदार हो गए और हम सम्बन्धो को ढोने वाले छोटे इंसान रह गए उफ़ , ये क्या हो गया ,कब हो गया सोच रहा हूँ कि उनकी महानता के सामने हम इतने नगण्य कैसे रह गए और हमे कहीं कोई जवाब नहीं मिल रहा , स्पष्टीकरण बेमानी हो जाते है ,और गुजरे हुए हलके फुल्के लम्हे दर्द के दरिया में छोड़ जाते है .
शायद सम्बद्ध खोना उतना दर्दीला नहीं है जितना विश्वास खोना या उस अहम को ठोकर लगना कि उन्होंने हमे उन लम्हों में छोड़ा जब हमें उनकी दरकार थी , उनके स्वार्थ हमारे त्याग से बड़े जो हो गए . निसंदेह वे बड़े समझदार थे जो फल रहित पेड़ के साये से दूर हो गए - उनकी निगाहों में हम फल देनेवाले पेड़ की जगह चुके हुए - ठूंठ हो गए थे. यानि कूल मिलाकर वे संबंधों में एक व्यापार की तलाश कर रहे थे और खुद को WIN और हमें LOOSE की स्थिति में रख रहे थे जबकि संबंधों का पैमाना हमेशा WIN - WIN होता है .
हम बेवकूफों की तरह जी रहे है और खुद को उन संबंधों की निरर्थकता आज भी नहीं समझा पा रहे है ,पता नहीं किस उम्मीद की डोर हमें थामे हुई है -उस बंदरियां की तरह !!! काश हम थोड़े समझदार होते थोड़ी दुनियादारी हमे भी आती !!!!
सुबोध, ७ फरवरी ,२०१५

Thursday, April 9, 2015

32 . ज़िंदगी – एक नज़रिया

काम (जिसे ज्यादातर लोग एक बोझ समझते है) की शक्ल में आने वाली उपलब्धियां जब गुजर जाती है और जो काम को इज्जत देता है उसे जब उपलब्धियां इज्जत देती है तब लोगों को समझ में आता है कि हमने गलती कहाँ की !
दरअसल उनकी असफलता की वजह उनकी मानसिकता होती है जो काम को बोझ समझते है .
मानसिकता एक अदृश्य स्थिति है दिमाग के स्तर पर जबकि उपलब्धि एक भौतिक स्तर है , दिमाग के स्तर से भौतिक स्तर पर आने के लिए जिस पुल की जरूरत होती है उसी पुल का नाम काम है , लिहाजा सिर्फ और सिर्फ कर्म ही महत्त्वपूर्ण है, ज्ञान की बातें कोई महत्व नहीं रखती अगर उन पर काम नहीं किया गया हो - गौर करें ज्ञान भी दिमाग का एक स्तर है .
विद्वान की विद्वता ज्ञान हासिल करने में है उनका लक्ष्य ज्ञान को हासिल करना है उस ज्ञान का उपयोग वे नहीं करते , सिर्फ और सिर्फ ज्ञान का संग्रह करते रहते है अंततः वे समाज में एक बड़े और प्रसिद्ध विद्वान के रूप में स्थापित हो जाते है लेकिन ज्ञान हासिल करने के इतर कर्म न करने की वजह से भौतिक स्तर पर उन्हें ढंग से दो वक्त की रोटी भी नहीं मिलती .
इसे एक उदाहरण से समझे - गुलज़ार साहब फिल्म इंडस्ट्री के नामी गीतकार है वे बड़े ज्ञानी भी है- एक विद्वान शख्सियत है , अगर उन्होंने सिर्फ ज्ञान हासिल किया होता उस ज्ञान की मार्केटिंग का कर्म न किया होता तो ? जाहिर सी बात है हज़ारों गुमनाम शख्सियतों की तरह वे भी गुमनाम ही रहते , उन्होंने इस बात को समझा, और फिल्म इंडस्ट्रीज के बेहतरीन स्ट्रगलर बने , आज वे जिस मुकाम पर है बहुत से प्रतिभाशाली लोगों के लिए वो स्वप्न है .
आपकी जानकारी आपका ज्ञान कोई महत्व नहीं रखता अगर उसके साथ कर्म नहीं जुड़ा है. जैसे ढेरों लोग कहते है कि आज अमुक शेयर ऊपर जायेगा वो अपने तरीके से इसकी गणना करते है मार्किट को समझते है यह उनका ज्ञान है तब वे ऐसी बात करते है लेकिन उनको तब तक कोई फायदा नहीं होता जब तक वे उस तथाकथित शेयर का लेन- देन नहीं करते .
लिहाजा इस बात को समझ लेवे ज्ञान से भी अधिक महत्त्वपूर्ण कर्म है .काम को बोझ मत समझिए बल्कि एक उपलब्धि का द्वार समझिए !
क्या पता कौन सा कर्म एक अवसर की तरह आपके सामने आ जाये ;अवसर हमेशा काम की शक्ल में ही आता है अगर आपने काम किया है तो अवसर आपका है नहीं तो अवसर आकर चला भी जायेगा और आपको पता भी नहीं चलेगा आप सिर्फ उसका इंतज़ार करते रहेंगे !!!!
सुबोध- फरबरी ६, २०१५ 

Wednesday, April 8, 2015

31 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


अँधेरा नकारा पक्ष नहीं है रोशनी का वो तो सिर्फ ये बताता है कि यहाँ रोशनी नहीं है इसी तरह समस्या ये बताती है कि वर्तमान में आपके पास ऐसा विचार नहीं है जो तथाकथित समस्या का समाधान दे सके . समस्या कभी ये नहीं कहती कि मेरा समाधान नहीं है बल्कि ये तो आप स्वयं है जो किसी तटस्थ परिस्थिति को समस्या का नाम देते है .
हो सकता है किसी अन्य के लिए आपकी समस्या कोई समस्या ही नहीं हो ठीक वैसे ही जैसे आपका अँधेरा उल्लू के लिए अँधेरा नहीं होता - उस बेचारे की तो रोशनी से आँखे चुंधिया जाती है यानि आपका अँधेरा किसी के लिए सुकून हो सकता है और किसी की रोशनी आपके लिए दर्दनाक अनुभव - ठीक उसी उल्लू की तरह .
ज़िन्दगी कभी भी किसी की भी सीधी और सपाट नहीं होती फिर वो चाहे कोई भी क्यों न हो , हर एक को अपने हिस्से की गलतियाँ ,असफलता , अपमान , हताशा और अस्वीकार्यता झेलनी ही पड़ती है - कोई भी इस दौर से बच नहीं सकता . वो आप ही है जो इसे आसान बनाते है या मुश्किल , वो आप ही है जो इन मुश्किलों से गुजरकर निखरते है या बिखरते है , वो आप ही है जो खड़े होकर हर उलटे-सीधे वार को झेलते है और विजयी बन कर निकलते है या पीठ दिखा कर तहस -नहस हो जाते है , वो आप ही है जो अब तक ज़िंदा है - सारी परेशानियों के बावजूद - यानि आपने अपने हिस्से की अब तक की सारी मुसीबतें झेल ली है और आप जानते है कि वो मुसीबतें छोटी नहीं थी फिर भी आप ज़िंदा है . यकीन मानिये आपके ज़िंदा होने में किसी और से ज्यादा आपकी जिजीविषा का हाथ है,आपके सुदृढ़ विचारों का हाथ है जो अँधेरे में रोशनी की तलाश भर है ,फिर वो चाहे अँधेरी ऊंघती सुरंग के पार के दूसरे सिरे पर मौजूद रोशनी का एहसास ही क्यों न हो या विचारों में दादी- अम्मा से सुनी हुई वर्षों पुरानी कहानियों में हर विकट परिस्थिति का सफलतापूर्वक सामना करने का कौशल - अँधेरे पलों में जलती हुई टोर्च .
जिन्हे आप समस्याएं मानते है दरअसल वो आपकी दिमागी खुराफात के अलावा कुछ नहीं है. आइये एक अलग तरीके से सोचे , जिसे आप समस्या कहते है उसे चुनौती कहकर देखे - आपका सोचने का, समझने का और खेलने का नजरिया बदल जायेगा और फिर चुनौती का सामना करना , एक लक्ष्य को पूरा करना टास्क बन जाता है जबकि समस्या आपके हाथ-पैर फुला देती है इसी तरह अँधेरे को समस्या के तरीके से देखने पर हताशा होती है जबकि अँधेरे को चुनौती के तौर पर देखने पर दीपक याद आता है , मोमबत्ती याद आती है, लालटेन याद आती है , बिजली याद आती है ,आग याद आती है और बंद अँधेरी गुफा में दो पत्थरों की तलाश की जाती है - चकमक पत्थर की .
ज़िन्दगी आसान नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है , परिस्थिति आसान नहीं है लेकिन समस्या भी नहीं है - वो आप है और आपके सोचने का तरीका जो चीज़ों को आसान बनाता है या मुश्किल , बदलाव अंदर से शुरू होता है -जड़ों से ,तभी तो बाहर अच्छे फल आते है - आइये अच्छे फल पाने के लिए अंदर से बदले ,हमारे सोचने के तरीके को बदले !!!
सुबोध -फरबरी १, २०१५

Tuesday, April 7, 2015

30 . ज़िंदगी – एक नज़रिया

तुम्हारा सच जड़ हो गया है , वक्त के चक्के में कहीं जाम हो गया है , उम्र तुम्हारी बढ़ी है लेकिन तुम्हारी सोच समय के किसी कालखण्ड में फंसी रह गयी है और उस दौर के तत्कालीन सच में ही अटकी हुई है तभी तो तुम कल जिन आशीर्वादों के कुछ अर्थ हुआ करते थे वही आशीर्वाद दोहराते जा रहे हो, जबकि आज वो आशीर्वाद एक बेवकूफी के बराबर हो गए है जैसे पूतों फलों या शतायु हो .
कहते है बहता हुआ सब शुद्ध होता है , नदी की तरह- जहाँ रूक गया ,ठहर गया वहीँ गंदलापन हावी होने लगता है फिर वो चाहे विचारों का बहाव ही क्यों न हो या कस कर पकड़ा हुआ सच ही क्यों न हो !!! जिन्होंने ये कहा है कि सच स्थायी होता है, हो सकता है उनका सच स्थायी हो लेकिन मेरी निगाहों में सब कुछ अस्थायी होता है , हाँ, कुछ सच दिनों में बदलते है, कुछ सालों में , कुछ सदियों में और कुछ युगों में - स्थायी कुछ नहीं होता ;उनकी सच की तासीर उन्हें मुबारक- तब तक उन्हें मुबारक जब तक मेरे सच से उनका सामना न हो .
मुझे तुम्हारे इस पकडे हुए सच से ,ठहरे हुए सच से ,जड़ हो चुके सच से,अपना औचित्य खो चुके सच से कोई दिक्कत नहीं है ,जब तक तुम मुझ से ये उम्मीद नहीं करते कि मैं तुम्हारे सच को स्वीकार करूँ - अपने सच को छोड़ कर ,त्याग कर,भूल कर - जो मैंने मेरे अनुभव से हासिल किया है !!
अगर तुम,मेरे सच को स्वीकार नहीं कर सकते तो कृपया मुझसे अपने सच को स्वीकार करने की मत कहो क्योंकि तुम्हारा सच तुम्हारा अनुभूत सच है और मेरा सच मेरे अपने अनुभव की देन है -- तुम्हारा सच तुम्हे मुबारक और मेरा सच मेरे पास रहने दो . अगर तुम मेरा सच स्वीकार करने को तैयार हो तो मैं भी तुम्हारा सच स्वीकार करने को तैयार हूँ इस शर्त पर कि फिर उन दोनों सचों को आपस में गलबहियां करने दो और जो पटखनी दे दूसरे को उस सच को तुम भी मानो और मैं भी - निर्णायक आज के युग के हो , वर्तमान के हो क्योंकि सबसे अहम सिर्फ वर्तमान होता है .
तुम राजा राम मोहन राय के ज़माने से पहले के सच को आज भी पकड़ कर बैठे हो और मैं औरत की संपूर्ण स्वतंत्रता की बात करता हूँ और मजे की बात ये है कि हम दोनों एक ही प्लेटफार्म पर खड़े है- हंसी भी आती है और अफ़सोस भी होता है हंसी इसलिए कि तुम जैसी मानसिकता के लोग आज भी ज़िंदा है और अफ़सोस इसलिए कि मंगल ग्रह तक जाने की बात करने वाले लोग तुम्हारे दिमाग की उलझी हुई तहों तक नहीं पहुँच पा रहे है !!!! उन तहों तक जो ज़माने को ,प्रगति को,इंसानियत को आगे बढ़ने से रोके हुए है !!!
सुबोध-जनवरी १३,२०१५ 

Saturday, April 4, 2015

29 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


हो सकता है ये छोटा सा नज़र आने वाला अवसर ही बड़ा अवसर हो और आप इस ताक में बैठे हो कि कोई बड़ा अवसर मिले और मेरे वारे- न्यारे हो जाये .
अगर गौर करें तो अवसर सिर्फ एक तटस्थता भरी परिस्थिति है वे आपके प्रयास है जो इनमे रंग भरते है या इन्हे बदरंग करते है जिस तरह एग्जामिनेशन हॉल में मिला हुआ पेपर एक तटस्थता भर है आपके प्रयास अगर उचित स्तर के है तो आपके सामने ये बेहतरीन अवसर है अन्यथा ये एक छोटा अवसर था जिसे आपने कोई ईज्जत नहीं दी और बदले में आपकी बेईज्जती हो गई !!
क्या ज़िन्दगी में आपकी हर समस्या के साथ यही नहीं हो रहा है ? आप बाहर को सुधारने की कोशिश कर रहे है ,या ये उम्मीद कर रहे है कि बाहर सुधर जायेगा और आपके लिए बेहतरीन अवसर पैदा करेगा - आपके अंदर क्या है आप इसे जानना और समझना ही नहीं चाहते . ये जानिये और समझिए जब तक आप अंदर से काबिल नहीं बनेंगे बाहर चाहे जितने बड़े अवसर हो आप नाकाम ही रहेंगे .
सचिन तेंदुलकर के लिए जो शॉट आसान है आपके लिए वो मुश्किल है इसकी वजह "बॉल मुश्किल थी" नहीं है बल्कि ये है कि सचिन की तैयारी अंदर से है जिसे उसने लगातार के अभ्यास से हासिल किया है और आपने तैयारी न करकर एक आसान बॉल की उम्मीद पाल रखी है . अगर सचिन भी आपकी तरह ही सोचता कि आसान बॉल आने पर शॉट मारूंगा तो क्या वो सचिन होता ? उसने प्रत्येक बॉल को- चाहे वो आसान हो या मुश्किल ,चाहे वो हलकी हो या भारी,चाहे वो छोटी हो या बड़ी एक अवसर की तरह देखा है और खुद को अंदर से मजबूत किया है तो सचिन बाहर से मजबूत है .उसने हर फैंकी हुई बॉल को एक अवसर माना है - छोटा अवसर या बड़ा अवसर नहीं - सिर्फ अवसर और यही उसकी खासियत उसे सचिन बनाती है .
कृपया ध्यान देवे -अवसर छोटा या बड़ा नहीं होता बल्कि आप छोटे या बड़े होते है -ज़िन्दगी को गलत नंबर के चश्मे से मत देखिये .
सुबोध - दिसंबर २२,२०१४

 

Thursday, April 2, 2015

28 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


ज़िन्दगी जब मुश्किल हो जाये ,इतनी मुश्किल कि तुम हौंसला हारने लगो तो गौर करना और देखना डूबते हुए सूरज को कल वो वापिस लौटेगा कुछ सुस्ताने के बाद ,नए सिरे से इस संसार को रोशन करने ; तो गौर करना और महसूस करना जिस्म से छूटती हुई सांस को , वो छोड़ी इसलिए जाती है कि कार्बन डाई ऑक्साइड निकाल सके और नई ऊर्जा के लिए ऑक्सीजन ले सके .
 ज़माने में कुछ ऐसे लोग थे जिन पर तुम्हे अटूट भरोसा था और वे तुम्हारे इस मुश्किल दौर में तुम्हारे साथ नहीं थे ( अच्छा हुआ कार्बन डाई ऑक्साइड निकल गई - वे तुम्हारी ज़िन्दगी के बैरियर थे ) लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे जिनसे तुम्हे कोई उम्मीद नहीं थी फिर भी वे जाने- अनजाने तुम्हारे साथ खड़े थे . और शुक्रिया अदा करना नीली छतरी वाले का कि उसने तुम्हे मौका दिया अपने पंख पसारने का, तुम्हारे अनुभव के संसार को समृद्ध करने का , असली और नकली की पहचान करने का ,बंद अँधेरे विश्वास की गलियों में भटकते मन में उजाला भरने का ,और शुक्रिया अदा करना उन साथियों के लिए जो मुश्किलों के दौर में तुम्हारे साथ खड़े थे कुछ पुराने और कुछ नए साथी .
तुम अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलें मत देखना वो उपलब्धियां देखना जिन्होंने तुम्हे कभी गौरव दिया था किसी ने आशीष में तुम्हारे सर पर हाथ रखा था किसी ने स्नेह से तुम्हारा माथा चूमा था और अपनी उस सोच को विस्तार देना जो तुममे ऊर्जा भरती थी ,अपने उन ख्वाबों को याद करना जो तुम्हारे बचपन जितने ही मासूम थे ,निश्छल थे यकीन मानो तब तुम्हे अपनी मुश्किलें छोटी लगेगी और विश्वास होने लगेगा कि मैं अब भी जीत सकता हूँ -बड़ा और आसान लगेगा .
सुबोध
९ दिसंबर , २०१४ 

 

27 . ज़िंदगी – एक नज़रिया


गलतियां हर इंसान करता है - अगर वो ज़िंदा है तो !
लेकिन फर्क इससे पड़ता है कि आपने उन गलतियों पर प्रतिक्रिया क्या और कैसे की है ,आपने गलती होने के बाद अपना माथा पीटा है या उन गलतियों से सबक लिया है .आपने आगे से कोई गलती न हो जाए इस डर से चलना ही बंद कर दिया है या बार-बार गलती कर कर, गिर-गिर कर साईकिल चलाना सीख लिया है .
अगर आपने साईकिल चलाना सीख लिया है तो जाहिर सी बात है उन दिनों आपके अंदर कोई एक आग जल रही थी ,कोई एक लगन लगी थी जो बार-बार गिरने ,चोट लगने के डर से ज्यादा ताकतवर थी . और अगर आपने नहीं सीखा है तो इसकी वजह ये नहीं थी कि साइकिल लम्बी थी या पेडल तक आपके पैर नहीं पहुँच पा रहे थे या पीछे से पकड़ने वाला सही नहीं था या आपको सिखानेवाला कोई भी नहीं था बल्कि असली वजह ये थी कि आपमें वो आग ही नहीं थी ,वो लगन ही नहीं थी जो आपको साइकिल चलाना सिखवा दे .
तीन साल पुरानी घटना याद आती है ,रात को एक बजे ठक -ठक की आवाज़ आ रही थी मैंने जानकारी की तो पता चला कपूर साहब का लड़का क्रिकेट सीख रहा है ,रात को एक बजे अपने किसी दोस्त के साथ वो डिफेन्स की प्रैक्टिस कर रहा था ,इस साल वो अपने स्टेट की तरफ से खेल रहा है -इसे आग कहते है ,इसे लगन कहते है ,इसे ज़ज़्बा कहते है - उसने अपनी कमी देखी, समझी कि उसकी बैटिंग कमजोर है ,बैटिंग करते वक्त वो बार-बार गलती कर जाता है ,कंसंट्रेट नहीं कर पाता है -उसने अपनी गलती को समझा और उसे दूर किया ,अपनी गलतियों पर उसकी प्रतिक्रिया सकारात्मक थी लिहाजा एक आग उसके अंदर पैदा हुई और उसने अपने घरवालों को गौरवान्वित किया .
जिन दिनों आपने साइकिल चलाना सीखा था उन दिनों वाली आग , उन दिनों वाली लगन आपमें आज भी ज़िंदा है ?
अगर है तो गलतियाँ आपका इंतज़ार कर रही है - सफलता भी !!
और अगर नहीं है तो अपने ख्वाबों को इतना बड़ा कीजिये कि आपकी रातों की नींद उड़ जाए और आप अपने किसी दोस्त के साथ रात को एक बजे डिफेन्स सीखने के लिए ठक -ठक करने लगे !!! ( कृपया पड़ोसियों के प्रति विनम्र रहे और उनकी सुविधा का ख्याल रखे ! )
सुबोध - २२ नवंबर,२०१४