अक्षर जो बिखरे पड़े है
मेरी ज़िन्दगी में
कुछ इधर - कुछ उधर
सजाती हूँ तरतीब से
कुछ से नज़रें मिलाते हुए
कुछ से नज़रें छुपाते हुए
बिलकुल रिश्तों की तरह
रिश्तों के जंगल में कुछ दरख़्त
बुड्ढे हो गए है इतने कि
अब फल नहीं देते ,
सुकून देते है
अपनेपन का एहसास देते है
कुछ हमउम्र दरख़्त
जिनके साथ रफ्ता-रफ्ता
पड़ाव लिए है उम्र के
बिलकुल अपने से लगते है
मेरे कपड़ों की तरह
मेरी इज़्ज़त की तरह .
मैं जिक्र नहीं करुँगी
उनके लौटाने का
जितना मैंने दिया है
उस से ज्यादा लौटाने का
क्योंकि रिश्ते
रिश्ते होते है ,
तिज़ारत नहीं .
और कुछ पौधे
नाज़ुक चमकीले पौधे
नज़रों में धीरे-धीरे
ले रहे है आकार
एक विशाल दरख़्त का
जिनकी छाँव में
जिनकी गोद में
मेरा सुकून ,मेरा चैन
मुलाकात करेगा
उन अक्षरों से
जिन्हे मैं सजा रही हूँ
तरतीब से ....
हाँ, कुछ पड़ाव
ऐसे भी होते है
जहाँ समेटना
अच्छा रहता है खुद को
खुद के लिए- रिश्तों की जीवंतता के लिए .
सुबोध- १४ जुलाई,२०१४
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