क्या करोगे जीत का सेहरा पहन कर ?
अपनों को दुखी कर उनके खिलाफ लड़ी हुई जंग में जीत भी गए तो क्या ,ये जंग किसी कौरव की नहीं,किसी पांडव की नहीं उनकी है जो कल भी तुम्हारे थे,आज भी तुम्हारे है और तुम चाहे जीतो या हारो तुम्हारे ही रहेंगे .
तुम खेल रहे हो अपने बच्चे के साथ और उसे खेल में हरा देते हो, खुश होते
हो जबकि तुम्हारा उद्देश्य बच्चे को कंपनी देना था , उसके चेहरे पर मुस्कान
की ताबीर लिखना था ! और तुमने अपनी चंद लम्हों की ख़ुशी के लिए उसे रोआंसा
कर दिया जबकि तुम उसमे एक नूर तलाश रहे थे ,एक चपलता ,एक कोमलता ,एक
खिलन्दड़ापन ,एक सहजता,एक सजगता और अपनापन तलाश रहे थे . वाह , क्या नशा है
जीत का !!
विवाद होता है माँ-बाप से पत्नी से बच्चो से और तुम अपनी बात सही साबित करकर जीत जाते हो बिना पूरी तरह उनका पक्ष जाने और खुद खुश होते हो बिना उनकी खुशी की परवाह किये , जिस तरह तुमने अपनी जीत पक्की करकर अपने बच्चे की ख़ुशी की परवाह नहीं की जबकि तुम्हारा उद्देश्य बच्चे को खुश करना भर था ! उसे जीत का आनंद देना था ,बड़प्पन देना था !
तुम्हे आदत पड़ गई है जीत की, हार तुम्हे रास नहीं आती बौखला जाते हो हार का सामना होने से ,लेकिन क्या हमेशा तात्कालिक तौर पर निश्चित की गई जीत ही वास्तविक जीत होती है ?
जीत महवपूर्ण है लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि तुम जानो किसके खिलाफ जीत रहे हो !
अपनों के खिलाफ जीत निश्चित करने से पहले सोचना वाकई में तुम जीत रहे हो या तुम्हारा सामर्थ्य जीत रहा है !
जिस दिन तुम्हारा सामर्थ्य चूक जायेगा उस दिन विगत में हासिल की गई जीत क्या वर्तमान की जीत या भविष्य की - सर्वकालिक जीत बनी रहेगी ?
अगर तुम्हारी एक हार से उनकी खुशियाँ बरक़रार रहती है ,चेहरे पर चाँदनी निखरती रहती है ,पैर ठुमकते रहते है, हाथों की लयबद्धता बाधित नहीं होती तो समझना तुम्हारी हार नहीं बल्कि जीत हुई है , ज़िन्दगी का उद्देश्य तुम्हारी व्यक्तिगत जीत नहीं ,अपनों की जीत में निहित है .तुम अकेले जीत भी गए और उस जीत के एवज में तुम अपनों को हार गए तो उस जीत का क्या स्वाद वही रहेगा ?
तुम्हारी ज़िन्दगी का गहरा उद्देश्य क्या है या तुम्हारे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्या है ?तुम्हारी जीत या अपनों को ख़ुशी देना या हर हार से कुछ सीख हासिल करना ?
अपनी चंद लम्हों (ये उथला उद्देश्य हो सकता है ) की ख़ुशी के लिए अपने मुख्य उद्देश्य से भटक जाना उचित नहीं !!!
सुबोध- अप्रैल १०, २०१५
विवाद होता है माँ-बाप से पत्नी से बच्चो से और तुम अपनी बात सही साबित करकर जीत जाते हो बिना पूरी तरह उनका पक्ष जाने और खुद खुश होते हो बिना उनकी खुशी की परवाह किये , जिस तरह तुमने अपनी जीत पक्की करकर अपने बच्चे की ख़ुशी की परवाह नहीं की जबकि तुम्हारा उद्देश्य बच्चे को खुश करना भर था ! उसे जीत का आनंद देना था ,बड़प्पन देना था !
तुम्हे आदत पड़ गई है जीत की, हार तुम्हे रास नहीं आती बौखला जाते हो हार का सामना होने से ,लेकिन क्या हमेशा तात्कालिक तौर पर निश्चित की गई जीत ही वास्तविक जीत होती है ?
जीत महवपूर्ण है लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि तुम जानो किसके खिलाफ जीत रहे हो !
अपनों के खिलाफ जीत निश्चित करने से पहले सोचना वाकई में तुम जीत रहे हो या तुम्हारा सामर्थ्य जीत रहा है !
जिस दिन तुम्हारा सामर्थ्य चूक जायेगा उस दिन विगत में हासिल की गई जीत क्या वर्तमान की जीत या भविष्य की - सर्वकालिक जीत बनी रहेगी ?
अगर तुम्हारी एक हार से उनकी खुशियाँ बरक़रार रहती है ,चेहरे पर चाँदनी निखरती रहती है ,पैर ठुमकते रहते है, हाथों की लयबद्धता बाधित नहीं होती तो समझना तुम्हारी हार नहीं बल्कि जीत हुई है , ज़िन्दगी का उद्देश्य तुम्हारी व्यक्तिगत जीत नहीं ,अपनों की जीत में निहित है .तुम अकेले जीत भी गए और उस जीत के एवज में तुम अपनों को हार गए तो उस जीत का क्या स्वाद वही रहेगा ?
तुम्हारी ज़िन्दगी का गहरा उद्देश्य क्या है या तुम्हारे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्या है ?तुम्हारी जीत या अपनों को ख़ुशी देना या हर हार से कुछ सीख हासिल करना ?
अपनी चंद लम्हों (ये उथला उद्देश्य हो सकता है ) की ख़ुशी के लिए अपने मुख्य उद्देश्य से भटक जाना उचित नहीं !!!
सुबोध- अप्रैल १०, २०१५
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