Saturday, May 10, 2014

आधा हिस्सा पीहर में

हाँ,आज भी टूट जाता है
घर आँगन अंदर तक
जब बेटी विदा होती है.

अपनी ससुराल जाकर भी
अपना आधा हिस्सा
छोड़ जाती है पीहर में.

फ़िक्र अपने भाई की,
मालिश पापा के सिर की,
आलिंगनबद्ध होना माँ से
ललक बचपन को जीने की
कर देती है भाव - विभोर
जमघट सहेलियों का
दौर चाय -कॉफी का देर रात तक
गीली-गीली रातों में
अलाव जलता है जज्बातों का.

शायद बेटियां पीहर जीने आती है--
छूटे हुए बचपन की यादें
भाई के साथ की गई शरारतें
पापा से की गई ज़िद
माँ के हाथ की रोटी
और कहीं गिरा पड़ा वो लम्हा
जिसमे दर्द भी था,खुशी भी.

और इन सबको जी कर
जब वो लौटती है ससुराल
अपना आधा हिस्सा
छोड़ जाती है पीहर में.

सुबोध

2 comments:

मेरी कुछ कही, कुछ अनकही! said...

इससे अच्छा वर्णन कुछ हो ही नहीं सकता। ..

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत सुंदर