Friday, June 27, 2014

अमीर यु हीं अमीर नहीं होता ( भाग -6 )



"जो है"
उससे अलग
क्या देते हो नया ?
जो नहीं है अब तक अस्तित्व में !
क्या है समस्या ?
बेहतरीन समाधान ?
समस्या चूहों का अनाज खाना है
त्रस्त है गरीब इस से
समाधान चूहे पकड़ने के पिंजरे बनाना है !!!!!!
ये नई सोच ही अमीरी है
जो रहेंगे त्रस्त वो गरीब रहेंगे
जो बनाएंगे पिंजरे अमीर बन जायेंगे
नया सोचना ,नया करना
आधार है अमीरी का .
-
आसान नहीं है
नया सोचना ,नया करना

-सोचने की फुर्सत नहीं है गरीब को
अमीर सोचता है ,समझने की मेहनत करता है .
-जोखिम नहीं लेते गरीब
अमीर परवाह नहीं करता अपने आखिरी सिक्के की भी
-सही मूल्यांकन सम्भावनाओ का नहीं करते गरीब
खंगालता है अमीर
सम्भावना,जोखिम,चुनौती.
-ऐतबार नहीं होता खुद की क्षमताओ पर गरीब को
क्योंकि उसे पूरा अंदाज़ा ही नहीं होता अपने संसाधनो का
जबकि अमीर तैयार करता है पूरा खाका अपनी टीम का
-आलोचनाओं से घबरा जाते है गरीब
पता होता है अमीर को
सफल होने पर मिलने वाला पुरस्कार
सो परवाह नहीं होती आलोचना की
-पार पाना आसान नहीं है गरीब का
अपने मानसिक अवरोधों से
जबकि जानता है अमीर
नतीजा मजबूत दृष्टिकोण का
कि यही है बड़े वृक्ष की जड़े
जितनी मजबूत ,उतना बड़ा साम्राज्य....
और इसी लिए
नया सोचता है अमीर ,
नया करता है अमीर....
क्योंकि
नया सोचना ,नया करना
आधार है अमीरी का .

सुबोध- ६ जून,२०१४


जनरेशन गैप



(कुछ दर्द जो सिर्फ महसूस होते है
कह नहीं सकते ऐसा ही दर्द है ये
जो हर पिता की ज़िन्दगी में आता है --)

आज़ादी दी तुम्हे ऐसी
जिसके लिए तरसा था मैं.
व्यवहार किया तुमसे
दोस्त की तरह
खोकर अपनी गरिमा.
खड़ा रहा हर पल तुम्हारे लिए
तुम्हारी हर तकलीफ
हर दर्द,
हर हताशा ,
हर तड़फ,
हर नाकामी
झेलता रहा अपने काँधे पर.

शायद शामिल न था तुम्हारी मुस्कान में
पर तुम्हारे आँसुओं में शामिल थे मेरे आँसूं भी
भरपूर कोशिश की मैंने
तुम्हारी आवाज़ बनने की ,
तुम्हारी सोच समझने की
सिर्फ इसलिए कि
ना आये कोई जनरेशन गैप
एक सोच का फर्क
रिश्ते जो बदल देता है ....

पिता की ज़िन्दगी में बेटा
अहम हिस्सा है उसकी ज़िन्दगी का
लेकिन बेटे की ज़िन्दगी में
ज्यादा महत्वपूर्ण होती है
उसकी खुद की ज़िन्दगी
उसकी खुशियाँ
उसका प्यार,
उसके दोस्त,
उसका कैरियर,
उसका….,
उसका....
और पिता कहीं पीछे छूट जाता है
शायद यही तकाज़ा है
उम्र का,
सोच का,
प्रकृति का .

मैं सोचता हूँ और कहीं अंदर तक
खिंच जाती है दर्द की एक लकीर
दिल से दिमाग तक...
कि कल ये दर्द
झेलना है तुमको भी
जनरेशन गैप का
तब शायद बेहतर
समझ पाओ मुझे तुम
मेरे गुस्से को,
मेरे लगाव को,
और मेरे उस स्पर्श को
जब मैं सीने से लगाता हूँ तुम्हे !!!

सुबोध- जून २७, २०१४


Friday, June 20, 2014

पिता


हँसो तुम !
लौट आएगा चाँदनी का नूर,
महक उठेगी रात की रानी
सर्द रात में जल उठेंगी
जज़्बातों की अंगीठी
हँसो तुम !!
चहकने लगेंगे पखेरू
सुबह खिल उठेगी गुड़हल सी
सूरज मुँह नहीं छुपायेगा बादलों में
बिखेरेगा गुनगुनी धुप
हँसो तुम !!!
तुम हँसो
कि तुम्हारी हँसी में
सिमटी है मेरी कायनात
कि तुम्हारा एक अश्क
चीरता है कलेजा
पिता हूँ ना,अच्छी नहीं लगती
रोती हुई औलाद !!!!
सुबोध- १९ जून ,२०१४

Friday, June 13, 2014

पचास पार मर्द



जिन अभावों से गुजरा मैं
मेरा परिवार रूबरू न हो उनसे
इसी कोशिश में
जिम्मेदारियों से झुके कंधे लिए
पचास पार का मर्द
लौटता है जब घर
स्वागत करते मिलते बीवी,बेटी,बेटा
दरवाज़े पर
अपनी-अपनी ख्वाइशों के साथ
जो बताई थी सुबह जाते वक्त..
पैसे की कमी के कारण
कुछ जो रह गई अधूरी
मनाना है उसके लिए...
गीलापन पसर जाता है आँखों में
जिसे साफ़ करता है चेहरा छुपाकर
--
दो रोटी परोसी जाती है
एक कटोरी दाल
एक कटोरी सब्ज़ी
और एक कटोरी फ़िक्र के साथ.
रोटी निगलता है
बिखरे ख्वाबों की किरचों से
बीबी की शिकायते सुनते-सुनते
उन शिकायतों में
पडोसी की नई गाड़ी,
सहेली की नई साड़ी से लेकर
दुनिया भर की अतृप्ति है.
-
टीवी के ऊँचे वॉल्यूम में
बहिन-भाई के झगडे
याद दिलाते है उसकी अपनी निष्फिक्री के दिन
तब वो नहीं समझता था फ़िक्र पापा की
आज ये नहीं समझ रहे है
कल जब ये बनेंगे माता, पिता
तो समझ जायेंगे अपने आप
-
रात को जब जाता है सोने
तो सोता नहीं
ऊंघता है कल की फ़िक्र में
सूरज कब माथे पर देने लगता है दस्तक
पता ही नहीं चलता ..
----
तैयार होकर जल्दी से
आधी खाता,आधी छोड़ता
निकल जाता है
बाहरी दुनिया में
जहाँ उसे करना है संघर्ष
परिवार की सुरक्षा और सुविधा के लिए
खुद का वज़ूद खोकर
किसी का पति ,पिता बनकर
ये जिम्मेदारी का सम्बल
पचास पार मर्द की पीड़ा कम करता है
और सफेदी कनपट्टीयों के पास की
खुद्दारी बन जाती है

सुबोध- १३ जून,२०१४

मेरा दर्द



वक्त का दरिया
अपने होठों की प्यास समेटे
जिस्म में उंडेल देता है तड़फ

मैंने जो चुने है हर्फ़
तेरी नफरत के दरख्त से
सीने से लगाये
तलाश रही हूँ
सुकून की छाँव

रूह बिखर कर
सिमट जाती है
वस्ल की उम्मीद में
पर अब भी टीसते है
बरसों पुराने ज़ख्म


सरगोशियाँ है हवा में
और मैदानों में
पूछती है कस्तूरी
मेरी आँखे नम क्यों है ?

सुबोध- ११ जून , २०१४


यादें



हाँ , मैंने महसूस की है
तुम्हारी ऊंचाई
पहाड़ों में तैरते
मटमैले,काले बादलों को
छूती ऊंचाई....

सुनी है तुम्हारी बातें
सर्र-सर्र चलती
हवाओ में तैरती बातें....

महसूस की है मैंने महक
झरती हुई तुम्हारे बदन से
रमती हुई मेरे जिस्म में

टूटकर बिखरती पत्तियाँ
कुछ हरी, कुछ पीली पत्तियाँ
सुनहरी शाम के साये में
हाथ में हाथ डालके
टहलते हुए
रूक जाना वक्त का
और तुम्हारा खिलखिलाना....

आसमान जित्ते ऊँचे तुम
तुम पर प्रेम आता है,
और नीचे अतल गहराइयाँ
डर लगता है देखकर.

खुरदरे होकर भी बड़े स्नेहिल हो ,
चस्पां हो मेरी रूह से तुम .
तुम मुझे बहुत अपने से लगते हो
ए मेरे चीड़.....

सुबोध - ८ जून ,२०१४


Thursday, June 12, 2014

जिजीविषा



मेरा बचपन
छुड़ाकर मेरा हाथ
खो गया है कहीं
हादसों की भीड़ में.

ख्वाबों के शहर में
सूरज की उंगली पकड़
खटखटाये
जो दरवाज़े
वहां पड़े मिले
सम्बन्धो के
मुर्दा जिस्म ...

डर नहीं लगता अब अंधेरों से
लगते है अपनों से
खौफ और सहमेपन पर
मुस्कान का नक़ाब
बन गया है आदत

वो लम्हा जो छिटक गया
वक्त के दरिया से
आज भी देता है दर्द
और तलाशता है
उस बचपन को
जो खो गया
हादसों की भीड़ में

मेरे दोस्त !
कहीं किसी मोड़ पर
टकरा जाये तुमसे
वो बचपन
चाहे मेरा हो या तुम्हारा
ले आना उसे मेरे पास
साथ बैठकर आइसक्रीम खाएंगे !!!!!

सुबोध- ९ जून २०१४

Friday, June 6, 2014

क्या सही है , क्यों सही है ??? ( भाग-2 )


तुम्हारी बेटी के लिए करता है
तुम्हारा दामाद कुछ
"अच्छा है/बहुत अच्छा है
नसीबों वाली है मेरी बेटी !!"
वही जब करता है तुम्हारा बेटा
तुम्हारी बहु के लिए
"जोरू का गुलाम है
घर बर्बाद कर दिया करमजली ने !!"
तुम्हारी बेटी क्या किसी की बहु नहीं ?
उसकी सास क्या वही सोचती है
जो तुम सोचती हो ?
क्यों फर्क आ जाता है इतना
खुद की बेटी
और दुसरे की बेटी में ?
--
तुम्हारी बेटी क्या तुम्हारी है ?
फिर उसे पराया धन क्यों कहते हो
किसी और की अमानत !!
--
शादी के वक्त बहु के पीहर वालों से कहते हो
हम तो बेटा दे के बेटी ले जा रहे है
वही बेटी हो गई करमजली !!
---
सम्मान और स्नेह
रिश्तों का
बदलता है
तुम्हारी सोच से
तुम्हे या
तुम्हारे मन को
दी गई सुविधा/असुविधा से
रिश्ते रिश्ते न हुए
स्वार्थ के पुलिंदे हो गये !!!

---
कब तक बंधे रहोगे
सोच के पुराने दायरे में
त्रासदी देती ज़ंजीरों में
कब स्वीकार करोगे कि..........

सुबोध - ७ जून,२०१४


Wednesday, June 4, 2014

बेवफा

जी करता है
टूटी चूड़ी सा
उफ़क़ पर टंगा
चौथ का चाँद उतार
तेरे लिए
नथनी का छल्ला बना दूँ
या कान की बाली
पर फिर सोचता हूँ
अगर तू बेवफा निकली तो
आसमान बहुत रोयेगा
मेरा क्या है
मैं तो मर्द  हूँ !!!!

सुबोध  ५ जून,२०१४
 

अमीर यु हीं अमीर नहीं होता ( ५ )



बतखों के साथ तैरोगे,बतख बने रहोगे
उड़ोगे हंसो के बीच,हंस बन जाओगे
निर्भर है तुम पर
करना अपना चुनाव.
क्यों तैरते रहना चाहते हो गंदले तालाब में
डर लगता है आसमान की बुलंदियों से ?
या महसूस करते हो खुद को नाकाबिल ?
-
ईश्वर ने तुम्हें नहीं भेजा है
बना कर भेड़ -बकरी
बल्कि भेजा है
शेर से भी ताक़तवर
मजबूत दिमाग वाले
इंसान के रूप में .
मत करो उसके वरदानों का अपमान
मत खेलो छोटा .
उसके दिए गुणों का
अधिकतम इस्तेमाल ही
बढ़ाता है तुम्हारा मूल्य .
क्यों बेचते हो सस्ते में खुद को ?
-
अमीर बनने के लिए जानना है तुमको
कैसे सुलझाई जाये
दूसरों की समस्याएं लाभ के साथ ?
जब मिल जाए इसका जवाब
तो सिर्फ खोजना है ये तरीका
कि कम समय में
कम मेहनत से
अधिक से अधिक लोगों की समस्याएं
कैसे सुलझाई जाए ?
-
छोटी सोच और छोटे कदम
गरीबी की और ले जाते है
जबकि बड़ी सोच और बड़े  कदम
अमीरी की और ले जाते है
आओ कदम बढ़ाये उस राह पर
जहाँ बदसूरत बतखें
बनती है सुन्दर हंस !!!!

सुबोध- ४ जून,२०१४

Monday, June 2, 2014

सपने



सपने

जान उन सपनों में होती है
जो उड़ा देते है नींदें .
नहीं करते परवाह
बीच रास्ते की अड़चनों की .
बन जाता है एक ज़ुनून .
हो जाते है एकाकार
दिल और दिमाग
और शुरू होता है सफर
सपने साकार करने का .
-
आओ देखे सपने खुली आँखों वाले
जो उड़ा दे नींदें .
जो हो अपने खुद के .
न कोई चुरा पाये,
न कोई तोड़ पाये .
न करे परवाह अड़चनों की .
जो भर दे दिमाग में ज़ुनून
जगा दे मन में तूफ़ान
लगा दे जिस्म में आग
कर दे एकाकार
दिल और दिमाग को
पूरा करने उन सपनों को
जो देखे है खुली आँखों से .

सुबोध- मई ३१,२०१४


क्या सही है , क्यों सही है ???




तुम क्या जानो
भूख की मजबूरियाँ
तुम क्या जानो
भूख मरोड़कर रख देती है आँतड़िया
हीक सी उठती है
गले को जलाती हुई
निकाल देती है पेट से बाहर
घिनौना ,बदबूदार,बासी
थूक का गोला
हल्का पनियाया हुआ .
भूखा जो है पेट .
पीड़ा कुछ तो समझो मेरी !!!!
नीली छतरीवाले के नाम पर 
लाखो,करोड़ों,अरबों के बनाये
मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे,गिरिजाघर
और उनके रखवालों को चढ़ते चढ़ावे
और उसी के बनाये मुझ जैसे प्राणी
तड़फते,
रोते ,
बिलखते,
और तलाशते रोटी के टुकड़े
भूखे रह जाते है ...
जिसे देखा नहीं वो सच हो गया
मैं देखा हुआ भी झूठ ......
सोचो क्या सही है , क्यों सही है ???

सुबोध - २ जून, २०१४