वक्त का दरिया
अपने होठों की प्यास समेटे
जिस्म में उंडेल देता है तड़फ
मैंने जो चुने है हर्फ़
तेरी नफरत के दरख्त से
सीने से लगाये
तलाश रही हूँ
सुकून की छाँव
रूह बिखर कर
सिमट जाती है
वस्ल की उम्मीद में
पर अब भी टीसते है
बरसों पुराने ज़ख्म
सरगोशियाँ है हवा में
और मैदानों में
पूछती है कस्तूरी
मेरी आँखे नम क्यों है ?
सुबोध- ११ जून , २०१४
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