Friday, June 13, 2014

मेरा दर्द



वक्त का दरिया
अपने होठों की प्यास समेटे
जिस्म में उंडेल देता है तड़फ

मैंने जो चुने है हर्फ़
तेरी नफरत के दरख्त से
सीने से लगाये
तलाश रही हूँ
सुकून की छाँव

रूह बिखर कर
सिमट जाती है
वस्ल की उम्मीद में
पर अब भी टीसते है
बरसों पुराने ज़ख्म


सरगोशियाँ है हवा में
और मैदानों में
पूछती है कस्तूरी
मेरी आँखे नम क्यों है ?

सुबोध- ११ जून , २०१४


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