तुम्हारी बेटी के लिए करता है
तुम्हारा दामाद कुछ
"अच्छा है/बहुत अच्छा है
नसीबों वाली है मेरी बेटी !!"
वही जब करता है तुम्हारा बेटा
तुम्हारी बहु के लिए
"जोरू का गुलाम है
घर बर्बाद कर दिया करमजली ने !!"
तुम्हारी बेटी क्या किसी की बहु नहीं ?
उसकी सास क्या वही सोचती है
जो तुम सोचती हो ?
क्यों फर्क आ जाता है इतना
खुद की बेटी
और दुसरे की बेटी में ?
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तुम्हारी बेटी क्या तुम्हारी है ?
फिर उसे पराया धन क्यों कहते हो
किसी और की अमानत !!
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शादी के वक्त बहु के पीहर वालों से कहते हो
हम तो बेटा दे के बेटी ले जा रहे है
वही बेटी हो गई करमजली !!
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सम्मान और स्नेह
रिश्तों का
बदलता है
तुम्हारी सोच से
तुम्हे या
तुम्हारे मन को
दी गई सुविधा/असुविधा से
रिश्ते रिश्ते न हुए
स्वार्थ के पुलिंदे हो गये !!!
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कब तक बंधे रहोगे
सोच के पुराने दायरे में
त्रासदी देती ज़ंजीरों में
कब स्वीकार करोगे कि..........
सुबोध - ७ जून,२०१४
1 comment:
सोचने को मजबूर करती कविता।
हिंदी साइंस फिक्शन
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