Friday, June 13, 2014

पचास पार मर्द



जिन अभावों से गुजरा मैं
मेरा परिवार रूबरू न हो उनसे
इसी कोशिश में
जिम्मेदारियों से झुके कंधे लिए
पचास पार का मर्द
लौटता है जब घर
स्वागत करते मिलते बीवी,बेटी,बेटा
दरवाज़े पर
अपनी-अपनी ख्वाइशों के साथ
जो बताई थी सुबह जाते वक्त..
पैसे की कमी के कारण
कुछ जो रह गई अधूरी
मनाना है उसके लिए...
गीलापन पसर जाता है आँखों में
जिसे साफ़ करता है चेहरा छुपाकर
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दो रोटी परोसी जाती है
एक कटोरी दाल
एक कटोरी सब्ज़ी
और एक कटोरी फ़िक्र के साथ.
रोटी निगलता है
बिखरे ख्वाबों की किरचों से
बीबी की शिकायते सुनते-सुनते
उन शिकायतों में
पडोसी की नई गाड़ी,
सहेली की नई साड़ी से लेकर
दुनिया भर की अतृप्ति है.
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टीवी के ऊँचे वॉल्यूम में
बहिन-भाई के झगडे
याद दिलाते है उसकी अपनी निष्फिक्री के दिन
तब वो नहीं समझता था फ़िक्र पापा की
आज ये नहीं समझ रहे है
कल जब ये बनेंगे माता, पिता
तो समझ जायेंगे अपने आप
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रात को जब जाता है सोने
तो सोता नहीं
ऊंघता है कल की फ़िक्र में
सूरज कब माथे पर देने लगता है दस्तक
पता ही नहीं चलता ..
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तैयार होकर जल्दी से
आधी खाता,आधी छोड़ता
निकल जाता है
बाहरी दुनिया में
जहाँ उसे करना है संघर्ष
परिवार की सुरक्षा और सुविधा के लिए
खुद का वज़ूद खोकर
किसी का पति ,पिता बनकर
ये जिम्मेदारी का सम्बल
पचास पार मर्द की पीड़ा कम करता है
और सफेदी कनपट्टीयों के पास की
खुद्दारी बन जाती है

सुबोध- १३ जून,२०१४

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