Thursday, September 4, 2014

कुछ टुकड़ों में


गिरकर संभलने वाले ही मंज़िल पाते है,
न संभलने वाले नाकामों में गिने जाते है .
तू हार मत, हारना तेरी फितरत नहीं,
मंज़िल पाने वाले ही विजेता कहलाते है
.

सुबोध- ४, सितम्बर , २०१४







---------


ज़माने की ठोकरों ने मजबूती दी है मुझे !
आज फिर एक ठोकर लगी है ,
लगता है अब मेरा वक्त आ गया !!!

सुबोध- ४ सितम्बर , २०१४







--------
 इंसान ज़िंदा रह गया
इंसानियत खो गई !!

ढूँढो उसे , शायद ज़िंदा हो
मुझमे या तुझमे !!! 


सुबोध- ४,सितम्बर,२०१४ 


-------------


उनके देखने के अंदाज़ ने
हमे अपनों से गैर कर दिया !!!!


सुबोध- ४ सितम्बर, २०१४




------------------



अनगिनित दिन, अनगिनित रातें
मेरे साथ चली है
मेरे साथ जली है
अश्कों से नहाईं है
तब निखरी है
गली-गली जिसकी चर्चा
हुई है, बिखरी है
तब कहीं जा के मोहब्बत कहलाई है
और मैं" दीवाना "

सुबोध ,- ४ सितम्बर, २०१४

No comments: