Saturday, May 10, 2014

यादों के शहर में

एक अकेला मैं
यादों के शहर में
वर्क उलटता हुआ
इश्क़ के
खो गया हूँ
बरसों की हथेली में चुभे
हिज़्र का कांटा निकालने में .

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विश्वास की झील में
घोल दिया मजबूरियों ने
बेवफ़ाई का ज़हर
और इश्क़ का पानी
जल गया
चूल्हे पे चढ़ी भूख की देग में .

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आँखों में लहराती
सुकून की लाली
नोंच ले गया
संस्कारों का गिद्ध
और मैं
जो कल साथ था कविता के
आज अकेला हो गया हूँ

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सुरज ने बंद कर दी है
किरणों की खिड़की
और बेनूर चाँद सिसक रहा है
यादों के शहर में
इश्क़ के वर्क उलटता .

सुबोध अगस्त १९८६

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