Saturday, May 10, 2014

ढूंढ दो न जरा !

आदत जो बन गई है हादसा
क़त्ल करती है
भाषा,मुहब्बत,मासूमियत.
याद करते है पेड़
वारिस शाह
जंगल में दौड़ते खरगोश
और सरसों के खेत !
चेहरा जब देखता है आईना
हाथों में रख देता है दहशत
उफ़ ! ये किस हीर का लहू है ?
किस कबीर की लाश है ?
किसने क़त्ल किया है बरसों का याराना ?
किसने उगा दिया है आँगन में
नफरत का दरख़्त ?
क्या बेटे भूल गए है गोद की लाज ,
वे अभाव जो दूर किये मिल-जुल कर ?
या-रब ! आदमियत कहाँ खो गई है ?
ढूंढ दो न जरा !!!!

सुबोध अक्टूबर १९८६

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