Saturday, May 10, 2014

दहेज़-हत्या

निरीह आँखों में ठहरा हुआ अँधेरा
अंदर ही अंदर नोंच रहा है आरज़ूओं का जिस्म.
उदासियाँ सिसकती है
लगकर अपने कंधे से
तड़पाती है माँ के मोह को.
वहशियत उगने से पहले क़त्ल कर देती है
रौशनी,मासूमियत,चाहत और मुस्कान.
खिंच जाता है
चेहरे पर खौफ ,भय
हर आहट पर !
पति हो जाता है गैर मर्द
और सास,ननद,ससुराल
अँधेरी , ऊंघती सुरंग
सांप और बिच्छुओं से भरी हुई
कि चिल्लाओ तो काटने लगती है
खुद ही की आवाज़ खुद को
हज़ारों तरफ से लौटती
पोर-पोर में भर देती है दहशत.
या
दर्द का दरिया मुठ्ठियों में समेट
खिलखिलाने की कोशिश
गिरा देती है
सांप और बिच्छुओं की
ज़हरीली बिलबिलाती दुनियाँ में.
और ज़हरीली आग में झुलसती
अँधेरे को झेलती-झेलती
बन जाती है अँधेरे का हिस्सा.
लिहाज़ा कविता छोड़ देती है साथ
घर से टूटने के दर्द की तरह.
और जब लोभ के शहर में
गिरवी रख दी जाती है आखिरी पोर आदमियत की
तब अखबार देते है खबर
जिसे आम ख़बरों की तरह उलट देते है हम
बिना सहानुभूति ,बिना दर्द के
कि फिर किसी मदांध हाथी ने
रौंद दिया है कमल का फूल.

सुबोध मई १९८७

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