बमों के धमाके
और गोलियों की आवाज़ से
वक़्त नहीं ठहरा करता
सिर्फ खून की धार
सस्ती हो जाया करती है.
और कांच हुई आँखों में
तैरती परछाइयाँ
दरिंदगी का संकेत दिया करती हैं
लेकिन धरती बाँझ नहीं होती
ज़ुल्म के किले को तोड़ने के लिए
बौखलायी हुई हवाओं में
नये फूल खिला करते हैं .
चाहे जिस देश की ज़मीन पर
उन फूलों को
बल्लम की नोंक पर टांगा जाये
वक़्त नहीं ठहरा करता.
दास्तानों को अपने इतिहास में
दर्ज़ कर देता हैं --
आने वाली नस्लों के लिए.
सुबोध- मार्च १९८३
और गोलियों की आवाज़ से
वक़्त नहीं ठहरा करता
सिर्फ खून की धार
सस्ती हो जाया करती है.
और कांच हुई आँखों में
तैरती परछाइयाँ
दरिंदगी का संकेत दिया करती हैं
लेकिन धरती बाँझ नहीं होती
ज़ुल्म के किले को तोड़ने के लिए
बौखलायी हुई हवाओं में
नये फूल खिला करते हैं .
चाहे जिस देश की ज़मीन पर
उन फूलों को
बल्लम की नोंक पर टांगा जाये
वक़्त नहीं ठहरा करता.
दास्तानों को अपने इतिहास में
दर्ज़ कर देता हैं --
आने वाली नस्लों के लिए.
सुबोध- मार्च १९८३
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