ससुराल वाले
करे या न करे
दहेज़ को लेकर अत्याचार
मगर तुम तो अभी से
करने लगी हो माँ.
टी.व्ही. और फ्रिज की सुना -सुना कर
अभी से बैठा दिया है
तलवार की धार पर.
बेटी की जवानी
यों उछाली तो नहीं जाती सरे-आम
की बेटी खुद के जिस्म पर
खुद के पैदा होने के
गुनाह का दंश झेलने को
मज़बूर हो जाये.
कैसी माँ हो तुम
कि कोई अच्छी साड़ी पाते ही
खुद की औरत की
आरज़ूओं को क़त्ल कर
बेटी के दहेज़ के लिए सहेजकर
ट्रंक में रख देती हो.
और उन लम्हों
( तुम शायद न समझ सको)
बहुत छोटी हो जाती हूँ मैं
खुद की निगाह में,
औरत के हक़ पर डाका डालने वाली ....
जब तुम चिंतित होती हो
पड़ौस की औरतों के बीच
मेरे दहेज़ को लेकर
तब मेरी मासूमियत का
बचपन के शबनमी ख्वाबों का
कोई न कोई क़तरा
मेरी मुस्कान के लहू में डूबकर
मुझे प्रौढ़ बना जाता है
और तुम्हें पता भी नहीं चलता
कि तुम्हारी मासूम बच्ची
घुटन के बंद कमरे में सिसकती
लम्हे-दर-लम्हे आतंकित होती
दर्द की नदी बन गई है.
दहेज़ को लेकर
तुम्हारी सहज परेशानियों को
तुम्हारी बच्ची
तिल-तिल कर भोगती है
और इस पीड़ा को झेलती
तुम्हारी लाडो की मासूमियत
तुम्हारी बिट्टो की सहजता
न जाने किन लम्हों में
विद्रोही बन जाती है .
इस सामाजिक व्यवस्था के
विरोध में तन कर खड़ी होने को आतुर
कि कल कोई माँ
रोये नहीं बेटी होने पर,
कल कोई माँ
परेशान न हो बेटी के दहेज़ को लेकर .
सुबोध-- अक्टूबर १९८६
करे या न करे
दहेज़ को लेकर अत्याचार
मगर तुम तो अभी से
करने लगी हो माँ.
टी.व्ही. और फ्रिज की सुना -सुना कर
अभी से बैठा दिया है
तलवार की धार पर.
बेटी की जवानी
यों उछाली तो नहीं जाती सरे-आम
की बेटी खुद के जिस्म पर
खुद के पैदा होने के
गुनाह का दंश झेलने को
मज़बूर हो जाये.
कैसी माँ हो तुम
कि कोई अच्छी साड़ी पाते ही
खुद की औरत की
आरज़ूओं को क़त्ल कर
बेटी के दहेज़ के लिए सहेजकर
ट्रंक में रख देती हो.
और उन लम्हों
( तुम शायद न समझ सको)
बहुत छोटी हो जाती हूँ मैं
खुद की निगाह में,
औरत के हक़ पर डाका डालने वाली ....
जब तुम चिंतित होती हो
पड़ौस की औरतों के बीच
मेरे दहेज़ को लेकर
तब मेरी मासूमियत का
बचपन के शबनमी ख्वाबों का
कोई न कोई क़तरा
मेरी मुस्कान के लहू में डूबकर
मुझे प्रौढ़ बना जाता है
और तुम्हें पता भी नहीं चलता
कि तुम्हारी मासूम बच्ची
घुटन के बंद कमरे में सिसकती
लम्हे-दर-लम्हे आतंकित होती
दर्द की नदी बन गई है.
दहेज़ को लेकर
तुम्हारी सहज परेशानियों को
तुम्हारी बच्ची
तिल-तिल कर भोगती है
और इस पीड़ा को झेलती
तुम्हारी लाडो की मासूमियत
तुम्हारी बिट्टो की सहजता
न जाने किन लम्हों में
विद्रोही बन जाती है .
इस सामाजिक व्यवस्था के
विरोध में तन कर खड़ी होने को आतुर
कि कल कोई माँ
रोये नहीं बेटी होने पर,
कल कोई माँ
परेशान न हो बेटी के दहेज़ को लेकर .
सुबोध-- अक्टूबर १९८६
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