Saturday, May 10, 2014

आस्था

खून से लिखे इश्तहार थामे
नारों से हवाएँ गर्म करते
अनपाये को पाने के लिए
मुठ्ठियाँ जकड़े
तमतमाये चेहरे
हाँ,बरसों पहले देखे थे
और उपेक्षा से मुस्कुरा दिया था
परिवर्तन लाने के लिए
शक्ति भी चाहिए - रोष ही नहीं
लेकिन आज
हर मोहल्ले से
इश्तहारों का हुजूम निकला है
और हर्फ़
शाने से शाना मिलाकर
आगे बढ़ रहे हैं
जिससे पूरा शहर थर्रा रहा है
कल का बिखरा हुआ रोष
आज संगठित होकर
शक्ति बन गया है
और मैं
जिसे कल तक इनमें
आस्था न थी
आज पहले वार के लिए
आगे बढ़ आया हूँ.

सुबोध मार्च १९८३

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