धीमी-धीमी बरसात में
हल्की सुनहरी धूप,
मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक,
आसमान में अंगड़ाई लेता इन्द्रधनुष
और ऐसे में तेरा ख़्याल
लगता है ऐसा
जाने गुज़र रहा हूँ आग से
या कोई चीर रहा है पोर-पोर .
खो देता हूँ सुध-बुध ,
घंटों घूरता रहता हूँ
ख़ाली दीवारों को.
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अँधेरे की चादर
जब चूमती है चाँदनी का बदन
खिलती है कही दूर रात की रानी
और महक
होकर हवाओं के परों पर सवार
बस जाती है मेरे ज़िस्म में
तब ख़्यालों में
बहुत कुछ आकर भी
कुछ नहीं आता है .
ख़ाली बर्तन की तरह
मन रीता रह जाता है .
ये इश्क़ की पीड़ा है
जो
वक़्त की कोख से टपके
लम्हों की गोद में
हँसाती है,
रुलाती है,
तड़फ़ाती है
और वक्त-बेवक्त
तन्हा छोड़ जाती है
इसे वही समझे
जिसने इश्क़ पढ़ा नहीं
बल्कि किया है ......
सुबोध- २३ मई ,२०१४
1 comment:
good one..
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