दहेज़ का दंश झेलते
टी.व्ही . और स्कूटर
बन गए है आग के बंद कमरे
कि जिसमे सुलगो ,रोओ चुपचाप .
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बेटी की पैदाइश
क्यों जुटा देती है
फिक्र का सामान
कि अच्छी साड़ी पाते ही
रख दी जाती है संदूक में ?
कि लटकने लगती है
दहशत की एक तलवार सर पर ?
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नहीं,हम सिर्फ फिक्र करते है अपनी
उसकी नहीं
बल्कि उसके दहेज़ को लेकर
हमारी खौफनाक चिंताएं
न जाने किन लम्हों नोंच देती है
उसकी मासूमियत के पर,
शरारत,खिलखिलाहट का जंगल.
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और हम ओढ़ते है एक मुखौटा
कि हमारी बेटी
धीरे-धीरे समझदार हो रही है
जबकि वह बिखर रही होती है
उसके लिए हमारी
फिक्र , परेशानियाँ देख देख कर
हर पल टुकड़ों में बँटती हुई.
सुबोध दिसंबर १९८६
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