Saturday, May 10, 2014

हथियार

हथियार
आदमी की भाषा से
जज़्बातों से अन्जान है.
हाथ
चुल्लू में ज़हर भर कर
हथियारों को अर्ध्य देते है
और हथियार
पैरों में खून का भंवर .
आदमी
आदमी के हाथों पे
बौखलाहट रखता है.
एक पल के लिये
हाथ कांपता है
और दुसरे पल आवेश
सुविधा के समर्थन में
विवशता और आत्महत्या
हवा में उछाल देता है
महंगाई की नोंक पर .
और अख़बार छापते है
लफ़्ज़ों के शहर में
भूखी, कराहती झोपड़ियों का
उथला -उथला दर्द.
तब जब आँसू से चमकीली
तलवार की धार
अँगुलियों की पोरों पर
उतर आती है
और सिर्फ एक लम्हे के लिये
आदमियत के बौनेपन पर
मन कसकता है.
और फिर एक रोज़
आग से घिरी
झोंपड़ियों को बुझाने वाले हाथ
हथियारों को अर्ध्य देते है........
मैं
उस बढ़ते समूह को देख
एक पल के लिये ठिठकता हूँ
अपना पिचका पेट
भूख की त्राश
जो छूरे की तेजी से
कलेजा चीरती है,
महसूसता हूँ
और
अपने लंगड़ाते क़दमों के साथ
उस समूह का अंग बन जाता हूँ
समूह का एक फटेहाल
आगे बढ़
मेरी कमर में हाथ डाल
मेरी लंगड़ाहट दूर करने की
कोशिश करता है
मैं उससे पूछता हूँ
तुम्हारे पास कोई हथियार है ?
वह
उत्तर के बदले में
एक सवाल उछलता है
हथियारों के इंतज़ार में
कब तक हम
रमुआ बने रहें,
क्यों न
हमारे पास जो है
यानी भूख और प्यास
उसे ही हथियार बनाकर
संघर्ष करें ?
और मुझे लगा
अब हथियार
आदमी की भाषा से
जज़्बातों से अन्जान नहीं है .

सुबोध जुलाई १९८३

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