रिक्त हथेलियों पर
ठहरा हुआ कालापन
किसी गर्म लम्हे की तलाश में
भिगोता है माँ का आँचल .
सिसकता है लगकर
भाई के कंधे से
या घुटता रहता है चुपचाप
अंदर ही अंदर .
भूल जाते है होंठ मुस्कुराना
शबनमी मुस्कान
मांगें, मनुहार भरी.
चेहरे की उदासी उतर आती है
चूड़ियों पर
काँप जाती है देह
हर आहट पर आतंक से .
टुकड़ों में बंटती हुई पल-पल
बदल जाते है शब्दों के अर्थ ,
घर आँगन से जुड़ने के मोह की तरह
और जब हो जाती है हद
अख़बारों की लुत्फभरी कतरनें
ज़िंदा हो जाती है
बनने से पहले
खंडहर हो गए
ताजमहल की लाश पर
सुबोध १९८७
ठहरा हुआ कालापन
किसी गर्म लम्हे की तलाश में
भिगोता है माँ का आँचल .
सिसकता है लगकर
भाई के कंधे से
या घुटता रहता है चुपचाप
अंदर ही अंदर .
भूल जाते है होंठ मुस्कुराना
शबनमी मुस्कान
मांगें, मनुहार भरी.
चेहरे की उदासी उतर आती है
चूड़ियों पर
काँप जाती है देह
हर आहट पर आतंक से .
टुकड़ों में बंटती हुई पल-पल
बदल जाते है शब्दों के अर्थ ,
घर आँगन से जुड़ने के मोह की तरह
और जब हो जाती है हद
अख़बारों की लुत्फभरी कतरनें
ज़िंदा हो जाती है
बनने से पहले
खंडहर हो गए
ताजमहल की लाश पर
सुबोध १९८७
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