एक हूक उठती है
मेरी मुठ्ठियाँ भिंचती है
जबड़े कसते है
और तन तन जाता है
पर अगले ही पल ये आग
बर्फ बन
पिघलने लगती है
क्योंकि ये विद्रोह की भावनाएं
उनके प्रति है
जिनके हस्ताक्षर
मेरे गले में उतरने वाली
रोटियों पर है .
हाँ , मैं स्वीकार कर रहा हूँ
ये मुठ्ठियों का ढीलापन
रोटियों पर
मेरे हस्ताक्षर होने तक.
सुबोध-- मार्च १९८३
मेरी मुठ्ठियाँ भिंचती है
जबड़े कसते है
और तन तन जाता है
पर अगले ही पल ये आग
बर्फ बन
पिघलने लगती है
क्योंकि ये विद्रोह की भावनाएं
उनके प्रति है
जिनके हस्ताक्षर
मेरे गले में उतरने वाली
रोटियों पर है .
हाँ , मैं स्वीकार कर रहा हूँ
ये मुठ्ठियों का ढीलापन
रोटियों पर
मेरे हस्ताक्षर होने तक.
सुबोध-- मार्च १९८३
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